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Tuesday, May 10, 2011

अदम्य साहस और असीम शान्ति की प्रतीक: इरोम शर्मिला

खुशबू(ख़ुशी)इन्द्री :
शायद ही किसी ने आज तक इतना साहस दिखाया हो। शायद ही किसी ने अन्याय के खिलापफ इतनी सच्ची लड़ाई लड़ी हो। शायद ही किसी ने शान्त रहकर अत्याचार का विरोध किया हो। जितने साहस और सच्चाई से इरोम शर्मिला नाम की लड़की कर रही है। पिछले 11 सालों से इस लड़की ने न कुछ खाया है न कुछ पिया हैं। इसी अनशन से इस लड़की ने पुलिस द्वारा शर्मिला को गिरपफतार कर कैद में रखा जाता हैं। जबरदस्ती उसके मुहँ में द्रव डाला जाता है। नवम्बर 2000 को शर्मिला ने अपना सत्याग्रह शुरू किया था। कारण था मणिपुर में लागू क्रूर कानून सशस्त्रा बल विशेषाधिकार अधिनियम का विरोध जिसके तहत सिपर्फ संदेह के आधार पर कोई व्यक्ति जो अपराध करने वाला है या कर चुका है, पर सेना बलप्रयोग या गिरपफतार कर सकती है या गोली मार सकती है। कानून मणिपुर और अधिकाशं पूर्वोत्तर में लागू किया गया है। यह कानून सेना के किसी श्री व्यक्ति के खिलापफ केन्द्र सरकार की अनुमति के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया की इजाजत भी नहीं देता। कानून के लागू होने के बाद सुरक्षा बलों ने हजारों लोग मारे हैं। सुरक्षा बल प्रतिदिन एक या दो गैरकानूनी हत्यायें करते हैं। सन् 2009 में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक ऐसी हत्याओं का आंकड़ा 265 रहा। इस कानून ने विद्रोही संगठनों पर लगाम कसने की बजाय आम आदमी में उबलता हुआ आक्रोस ही पैदा किया है।

कुछ साल पहले मणिपुर की दर्दभरी दास्तां सुनाती एक सीडी सार्वजनिक की गई थी। जिसमें सेना की अपमानजनक क्रूरता की पफुटेज थी। छोटे बच्चों, छात्रों, कामकाजी ओरतों की तस्वीरें थी जो सड़कों पर आ गए थे। आंसू गैस और गोलियों का निशान बन रहे थे। ऐसी तस्वीरें थी। जिनमें आदमियों को नीचे जमा पर लिटा कर उनके सिरों से बस कुछ इंच ऊपर से गोलियों दागी जा रही थी। लड़के गायब हो रहे थे। औरतों के साथ बलात्कार किये जा रहे थे। मानव की सबसे जरूरी चीज, उसके आत्मसम्मान को छील छील कर उतारा जा रहा था।

नवम्बर 2000 में एक विद्रोही संगठन ने असम राइपफल्स के दस्ते पर बम पफेंका। क्रोधित बटालियन ने मालोम बस स्टैण्ड़ पर दस बेकसूरों को मार डाला। शवों की भयावह तस्वीरें अगले दिन स्थानीय अखबारों में छपीं। जिनमें एक 62 साल की औरत थी तो एक 18 साल की लड़की थी जो 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार ले चुकी थी। यह सब देखकर शर्मिला असामान्य रूप से बेचैन हो गयी। इम्पफाल के पशु चिकित्सालय में काम करनें वाले अनपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सबसे छोटी बेटी शर्मिला हमेशा अकेली रहना पसन्द करती थी।

आज तक भी वह एकान्त जीवन बिता रही है। न सरकार ने उसकी सुध ही न मीडिया ने उसकी तरपफ ध्यान दिया। बल्कि इस मुद्दे को रोशनी में आने के लिए 2006 में ईरान की नोबल पुरस्कार विजेता शिरीन ईबादी की भारत यात्रा का इन्तजार करना पड़ा। शिरीन इबादी को जब इस सत्याग्रह बारे पता चला तो उसने प्रेस सम्मेलन में भारत सरकार और मीडिया की बेशर्मी से दुनिया को अवगत कराते हुए कहा अगर शर्मिला मरी तो भारतीय संसद, कार्यपालिका प्रधानमंत्राी और राष्ट्रपति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार होंगी। अगर वह मरती है तो सारे पत्राकार जिम्मेवार होंगे। क्योंकि सभी ने कुछ भी नहीं किया। किसी ने भी अपना फर्ज नहीं निभाया। और एक असाधारण क्षमता और साहस रखने वाली वह गोरी मगर कमजोर, भूख प्यास से बिलबिलाती इधर उधर बिस्तर पर करवटें बदलती लड़की कहती है कि यह सजा नहीं बल्कि मेरा कर्तव्य है। उसकी बदनसीब माँ जिसने पिछले 10 सालों से अपने बच्चे को कुछ खाते-पीते न देखा, दिल पर पत्थर रखकर कहती है कि जब तक शर्मिला की मांगे नहीं मानी जाएंगी तब तक वह अपनी बेटी से नहीं मिलेगी, क्योंकि इससे शर्मिला का संकल्प कमजोर पड़ जाएगा। बाकई भारत सरकार के लिए शर्मनाक बात होगी, अगर बिना इन्सापफ मिले शर्मिला मरती है।

इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात ये है कि भारतीय हिंसा की भयावह तारीख 26/11 की बरसी मनाना तो याद रखते हैं लेकिन उस औरत को भूल जाते हैं जो पिछले 10 सालों से बिना कुछ खाये-पीयें असीम हिंसा का जवाब असीम शान्ति से दे रही है। असाधारण इच्छाशक्ति असाधारण सादगी और असाधारण अदम्य साहस। निश्चय ही 21वीं सदी की सच्ची गाँधीवादी है इरोम शर्मिला।


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Tuesday, May 10, 2011

अदम्य साहस और असीम शान्ति की प्रतीक: इरोम शर्मिला

खुशबू(ख़ुशी)इन्द्री :
शायद ही किसी ने आज तक इतना साहस दिखाया हो। शायद ही किसी ने अन्याय के खिलापफ इतनी सच्ची लड़ाई लड़ी हो। शायद ही किसी ने शान्त रहकर अत्याचार का विरोध किया हो। जितने साहस और सच्चाई से इरोम शर्मिला नाम की लड़की कर रही है। पिछले 11 सालों से इस लड़की ने न कुछ खाया है न कुछ पिया हैं। इसी अनशन से इस लड़की ने पुलिस द्वारा शर्मिला को गिरपफतार कर कैद में रखा जाता हैं। जबरदस्ती उसके मुहँ में द्रव डाला जाता है। नवम्बर 2000 को शर्मिला ने अपना सत्याग्रह शुरू किया था। कारण था मणिपुर में लागू क्रूर कानून सशस्त्रा बल विशेषाधिकार अधिनियम का विरोध जिसके तहत सिपर्फ संदेह के आधार पर कोई व्यक्ति जो अपराध करने वाला है या कर चुका है, पर सेना बलप्रयोग या गिरपफतार कर सकती है या गोली मार सकती है। कानून मणिपुर और अधिकाशं पूर्वोत्तर में लागू किया गया है। यह कानून सेना के किसी श्री व्यक्ति के खिलापफ केन्द्र सरकार की अनुमति के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया की इजाजत भी नहीं देता। कानून के लागू होने के बाद सुरक्षा बलों ने हजारों लोग मारे हैं। सुरक्षा बल प्रतिदिन एक या दो गैरकानूनी हत्यायें करते हैं। सन् 2009 में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक ऐसी हत्याओं का आंकड़ा 265 रहा। इस कानून ने विद्रोही संगठनों पर लगाम कसने की बजाय आम आदमी में उबलता हुआ आक्रोस ही पैदा किया है।

कुछ साल पहले मणिपुर की दर्दभरी दास्तां सुनाती एक सीडी सार्वजनिक की गई थी। जिसमें सेना की अपमानजनक क्रूरता की पफुटेज थी। छोटे बच्चों, छात्रों, कामकाजी ओरतों की तस्वीरें थी जो सड़कों पर आ गए थे। आंसू गैस और गोलियों का निशान बन रहे थे। ऐसी तस्वीरें थी। जिनमें आदमियों को नीचे जमा पर लिटा कर उनके सिरों से बस कुछ इंच ऊपर से गोलियों दागी जा रही थी। लड़के गायब हो रहे थे। औरतों के साथ बलात्कार किये जा रहे थे। मानव की सबसे जरूरी चीज, उसके आत्मसम्मान को छील छील कर उतारा जा रहा था।

नवम्बर 2000 में एक विद्रोही संगठन ने असम राइपफल्स के दस्ते पर बम पफेंका। क्रोधित बटालियन ने मालोम बस स्टैण्ड़ पर दस बेकसूरों को मार डाला। शवों की भयावह तस्वीरें अगले दिन स्थानीय अखबारों में छपीं। जिनमें एक 62 साल की औरत थी तो एक 18 साल की लड़की थी जो 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार ले चुकी थी। यह सब देखकर शर्मिला असामान्य रूप से बेचैन हो गयी। इम्पफाल के पशु चिकित्सालय में काम करनें वाले अनपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सबसे छोटी बेटी शर्मिला हमेशा अकेली रहना पसन्द करती थी।

आज तक भी वह एकान्त जीवन बिता रही है। न सरकार ने उसकी सुध ही न मीडिया ने उसकी तरपफ ध्यान दिया। बल्कि इस मुद्दे को रोशनी में आने के लिए 2006 में ईरान की नोबल पुरस्कार विजेता शिरीन ईबादी की भारत यात्रा का इन्तजार करना पड़ा। शिरीन इबादी को जब इस सत्याग्रह बारे पता चला तो उसने प्रेस सम्मेलन में भारत सरकार और मीडिया की बेशर्मी से दुनिया को अवगत कराते हुए कहा अगर शर्मिला मरी तो भारतीय संसद, कार्यपालिका प्रधानमंत्राी और राष्ट्रपति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार होंगी। अगर वह मरती है तो सारे पत्राकार जिम्मेवार होंगे। क्योंकि सभी ने कुछ भी नहीं किया। किसी ने भी अपना फर्ज नहीं निभाया। और एक असाधारण क्षमता और साहस रखने वाली वह गोरी मगर कमजोर, भूख प्यास से बिलबिलाती इधर उधर बिस्तर पर करवटें बदलती लड़की कहती है कि यह सजा नहीं बल्कि मेरा कर्तव्य है। उसकी बदनसीब माँ जिसने पिछले 10 सालों से अपने बच्चे को कुछ खाते-पीते न देखा, दिल पर पत्थर रखकर कहती है कि जब तक शर्मिला की मांगे नहीं मानी जाएंगी तब तक वह अपनी बेटी से नहीं मिलेगी, क्योंकि इससे शर्मिला का संकल्प कमजोर पड़ जाएगा। बाकई भारत सरकार के लिए शर्मनाक बात होगी, अगर बिना इन्सापफ मिले शर्मिला मरती है।

इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात ये है कि भारतीय हिंसा की भयावह तारीख 26/11 की बरसी मनाना तो याद रखते हैं लेकिन उस औरत को भूल जाते हैं जो पिछले 10 सालों से बिना कुछ खाये-पीयें असीम हिंसा का जवाब असीम शान्ति से दे रही है। असाधारण इच्छाशक्ति असाधारण सादगी और असाधारण अदम्य साहस। निश्चय ही 21वीं सदी की सच्ची गाँधीवादी है इरोम शर्मिला।


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