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Sunday, May 8, 2011

मजदूर दिवस विशेष-दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ

खुशबू(ख़ुशी)इन्द्री
कार्ल मार्क्स का कथन 'दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ' वर्तमान भारत में भी प्रासंगिक है। इस साल की परिस्थितियाँ दूसरी हैं। सारा विश्व वर्तमान समय में क्रांतियों के दौर से गुजर रहा है। 1792 के पहले फ्रांस में शोषण के जाल में फँसे मजदूरों जैसी स्थिति में भारत के मजदूर भी हैं।
भारत में मजदूरों का यह नीति आधारित शोषण कहीं ठेकेदारों द्वारा, तो कहीं निजी क्षेत्र में हो रहा है। सरकारी नीतियाँ भी व्यवस्था में उन्हें समानता नहीं प्रदान कर रही हैं। 18वीं शताब्दी के फ्रांस की स्थिति आज के भारत जैसी ही थी। मजदूरों के लिए न तो श्रम करने की समय सीमा तय थी न ही यह तय था कि उन्हें कम से कम कितनी मजदूरी मिलेगी। मजदूर सामंतों और जमीदारों और व्यापारियों के शोषण का शिकार हो रहे थे।
 
1948 का न्यूनतम मजदूरी कानून :

मेहतकशों की दुनिया में फैले असंतोष को देखते हुए पहले ब्रिटेन ने 1896 में फैक्टरी कानून बनाया जिसमें यह बताया गया है कि एक मजदूर को एक सप्ताह या एक दिन में कितने घंटे श्रम करना होगा। इसी के साथ काम के ऐवज में न्यूनतम मजदूरी का विचार भी आया। भारत में यह कार्य 1948 में हो सका जब यहाँ पर न्यूनतम मजदूरी कानून बना। लेकिन यहाँ का मजदूर आज भी अपने हिस्से की न्यूनतम मजदूरी पाने के लिए संघर्ष कर रहा है।

 
मानवाधिकार बनाम न्यूनतम मजदूरी :

इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए न्यूनतम मजदूरी देने की बात की है। इन बिंदुओं में परिवार का आकार, कपड़ों की आवश्यकता, आवास, भोजन, ईंधन,रोशनी और अन्य खर्चों को देखते हुए मजदूरी निर्धारण की बात कही है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा था कि न्यूनतम मजदूरी में बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ , सामाजिक समारोह आयोजन करने की क्षमता और वृद्घों की जरूरत को पूरा करने के लिए न्यूनतम मजदूरी की भेंट की 25 फीसद राशि और जोड़ी जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि नियोजकों को हर परिस्थिति में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें अपना व्यवसाय बंद कर देना चाहिए। भारत में न्यूनतम मजदूरी कानून को एक संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित करने का जरिया माना गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पीयूसीआर बनाम भारतीय संघ के एक मामले में न्यूनतम मजदूरी के भुगतान न किए जाने को बेगार के बराबर माना है। उल्लेखनीय है भारतीय संविधान के अनुच्छेद-23 के तहत इस पर रोक है। यह कानून व्यावहारिक प्रक्रिया में संविधान के अनुच्छेद-226 की परिधि में आ जाता है जिनमें व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा के बारे में प्रावधान किए गए हैं।

मध्यप्रदेश की स्थिति

वर्तमान में मध्यप्रदेश में अनुकूल श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी 122 रुपए तय है। जिसके आधार पर 90 लाख ग्रामीण परिवारों को एवज में मिलने वाली इस राशि के पाँच सदस्यों के हिस्से में जितने रुपए आते हैं वे अगर एक वक्त के भोजन के लिए ही हो जाएँ तो काफी है।


मध्यप्रदेश में सामान्य सतह की होने की स्थिति में 100 क्यूबिक फुट खुदाई को न्यूनतम लक्ष्य माना गया है जबकि कठोर मिट्टी या मुरुम होने पर 64 क्यूबिक फुट खुदाई करने पर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मिलेगी। क्या मजदूर के शारीरिक श्रम पूर्ति के लिए ऐसे पोषक पदार्थों को पाने योग्य यह न्यूनतम मजदूरी है? शारीरिक रूप से कमजोर मजदूर सरकार द्वारा तय किए कठोर श्रम मापदंडों के अनुरूप काम कर पाएँगे?रोजगार गारंटी अधिनियम एक प्रभावशाली कानून है पर इसमें अनियमितताएँ व्याप्त हैं। सरकार ने अपने नए प्रावधानों में अपने हर कर्मचारी अफसर के लिए न्यूनतम 15000- 90000 निर्धारित करती है। वही सरकार मजदूर के लिए साल के सिर्फ 100 दिन का काम तय करती है। इसमें यह देखने वाले लोग हैं कि मजदूरों ने कितना काम किया। जबकि मोटे वेतनों पर कार्यरत सरकारी लोगों से यह कोई नहीं पूछता। क्या अनपढ़ मजदूरों पर यह दबाव उचित है? वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण दे रहे जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- 'खेतों और फैक्टरियों में काम करने वाले हर मजदूर और कामगार को कम से कम इतना अधिकार तो है ही कि वह इतनी मजदूरी पाए कि अपना जीवन सुख-सुविधा से बिता सके...।' पर आज आजादी के 6 दशकों बाद भी मजदूरों की वास्तविक स्थिति क्या है यह किसी से छिपी नहीं है।


ये हैं अपेक्षाएँ :

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Sunday, May 8, 2011

मजदूर दिवस विशेष-दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ

खुशबू(ख़ुशी)इन्द्री
कार्ल मार्क्स का कथन 'दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ' वर्तमान भारत में भी प्रासंगिक है। इस साल की परिस्थितियाँ दूसरी हैं। सारा विश्व वर्तमान समय में क्रांतियों के दौर से गुजर रहा है। 1792 के पहले फ्रांस में शोषण के जाल में फँसे मजदूरों जैसी स्थिति में भारत के मजदूर भी हैं।
भारत में मजदूरों का यह नीति आधारित शोषण कहीं ठेकेदारों द्वारा, तो कहीं निजी क्षेत्र में हो रहा है। सरकारी नीतियाँ भी व्यवस्था में उन्हें समानता नहीं प्रदान कर रही हैं। 18वीं शताब्दी के फ्रांस की स्थिति आज के भारत जैसी ही थी। मजदूरों के लिए न तो श्रम करने की समय सीमा तय थी न ही यह तय था कि उन्हें कम से कम कितनी मजदूरी मिलेगी। मजदूर सामंतों और जमीदारों और व्यापारियों के शोषण का शिकार हो रहे थे।
 
1948 का न्यूनतम मजदूरी कानून :

मेहतकशों की दुनिया में फैले असंतोष को देखते हुए पहले ब्रिटेन ने 1896 में फैक्टरी कानून बनाया जिसमें यह बताया गया है कि एक मजदूर को एक सप्ताह या एक दिन में कितने घंटे श्रम करना होगा। इसी के साथ काम के ऐवज में न्यूनतम मजदूरी का विचार भी आया। भारत में यह कार्य 1948 में हो सका जब यहाँ पर न्यूनतम मजदूरी कानून बना। लेकिन यहाँ का मजदूर आज भी अपने हिस्से की न्यूनतम मजदूरी पाने के लिए संघर्ष कर रहा है।

 
मानवाधिकार बनाम न्यूनतम मजदूरी :

इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए न्यूनतम मजदूरी देने की बात की है। इन बिंदुओं में परिवार का आकार, कपड़ों की आवश्यकता, आवास, भोजन, ईंधन,रोशनी और अन्य खर्चों को देखते हुए मजदूरी निर्धारण की बात कही है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा था कि न्यूनतम मजदूरी में बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ , सामाजिक समारोह आयोजन करने की क्षमता और वृद्घों की जरूरत को पूरा करने के लिए न्यूनतम मजदूरी की भेंट की 25 फीसद राशि और जोड़ी जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि नियोजकों को हर परिस्थिति में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें अपना व्यवसाय बंद कर देना चाहिए। भारत में न्यूनतम मजदूरी कानून को एक संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित करने का जरिया माना गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पीयूसीआर बनाम भारतीय संघ के एक मामले में न्यूनतम मजदूरी के भुगतान न किए जाने को बेगार के बराबर माना है। उल्लेखनीय है भारतीय संविधान के अनुच्छेद-23 के तहत इस पर रोक है। यह कानून व्यावहारिक प्रक्रिया में संविधान के अनुच्छेद-226 की परिधि में आ जाता है जिनमें व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा के बारे में प्रावधान किए गए हैं।

मध्यप्रदेश की स्थिति

वर्तमान में मध्यप्रदेश में अनुकूल श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी 122 रुपए तय है। जिसके आधार पर 90 लाख ग्रामीण परिवारों को एवज में मिलने वाली इस राशि के पाँच सदस्यों के हिस्से में जितने रुपए आते हैं वे अगर एक वक्त के भोजन के लिए ही हो जाएँ तो काफी है।


मध्यप्रदेश में सामान्य सतह की होने की स्थिति में 100 क्यूबिक फुट खुदाई को न्यूनतम लक्ष्य माना गया है जबकि कठोर मिट्टी या मुरुम होने पर 64 क्यूबिक फुट खुदाई करने पर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मिलेगी। क्या मजदूर के शारीरिक श्रम पूर्ति के लिए ऐसे पोषक पदार्थों को पाने योग्य यह न्यूनतम मजदूरी है? शारीरिक रूप से कमजोर मजदूर सरकार द्वारा तय किए कठोर श्रम मापदंडों के अनुरूप काम कर पाएँगे?रोजगार गारंटी अधिनियम एक प्रभावशाली कानून है पर इसमें अनियमितताएँ व्याप्त हैं। सरकार ने अपने नए प्रावधानों में अपने हर कर्मचारी अफसर के लिए न्यूनतम 15000- 90000 निर्धारित करती है। वही सरकार मजदूर के लिए साल के सिर्फ 100 दिन का काम तय करती है। इसमें यह देखने वाले लोग हैं कि मजदूरों ने कितना काम किया। जबकि मोटे वेतनों पर कार्यरत सरकारी लोगों से यह कोई नहीं पूछता। क्या अनपढ़ मजदूरों पर यह दबाव उचित है? वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण दे रहे जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- 'खेतों और फैक्टरियों में काम करने वाले हर मजदूर और कामगार को कम से कम इतना अधिकार तो है ही कि वह इतनी मजदूरी पाए कि अपना जीवन सुख-सुविधा से बिता सके...।' पर आज आजादी के 6 दशकों बाद भी मजदूरों की वास्तविक स्थिति क्या है यह किसी से छिपी नहीं है।


ये हैं अपेक्षाएँ :

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